Tuesday, March 29, 2011

समधन का फ़ेमिली प्लानिंग-1

मेरा नाम सोनाली, मैं कानपुर, उत्तर प्रदेश की हूँ। मेरी कहानी सच्ची है। मैं अन्तर्वासना को करीब दो वर्ष से पढ़ रही हूँ। मुझे भी लगा कि मैं अपनी दास्तान अपने अन्तर्वासना के पाठकों तक पहुचाऊं। मैं लेखिका नेहा वर्मा को अपनी कहानी भेज रही हूँ।

मेरी शादी के बाद दो बच्चे पैदा हुए। उसके बाद मैंने अपना फ़ेमिली प्लानिंग का ऑपरेशन करवा लिया था। पति का देहान्त आज से करीब 15 वर्ष पहले हो चुका था। पुत्र राजीव की शादी धूमधाम से सम्पन्न हो गई थी। मेरी लड़की मयंक नाम के एक लड़के के साथ प्रेम-पाश में फ़ंस गई थी। उसके मयंक के साथ अन्तरंग सम्बन्ध स्थापित हो चुके थे। मयंक अंजलि के कॉलेज़ में ही पढ़ता था और हॉस्टल में रहता था।

बहुत समय से मेरे दिल में वासना दबी हुई थी पर स्त्री सुलभ लज्जावश मुझे अपने वश में ही रहना था। मेरे दिल में भी चुदाई की एक कसक रह रह कर उठती थी। मेरी उम्र 45 वर्ष की हो चुकी थी, पर दिल अभी भी जवान था। मेरी दिल की वासनाएँ उबल उबल कर मेरे दिल पर प्रहार करती थी।

एक बार मयंक रात को मेरी बेटी अंजलि के पास कॉलेज का कुछ काम करने आया। मैं उस समय सोने की तैयारी कर रही थी। मैं लाईट बन्द करके सोने की कोशिश कर रही थी, पर वासनायुक्त विचार मेरे मन में बार बार आ रहे थे। मैं बेचैनी से करवटे बदलती रही। फिर मैं उठ कर बैठ गई। मैं अपने कमरे से बाहर आ गई, तभी मुझे अंजलि के कमरे में कुछ हलचल सी दिखाई दी। मैं उत्सुकतापूर्वक उसके कमरे की ओर बढ़ गई। तभी खिड़की से मुझे अंजलि और मयंक नजर आ गये। मयंक अंजलि के ऊपर चढ़ा हुआ उसे चोद रहा था। मैं यह सब देख कर दंग रह गई। मेरे दिल पर उनकी इस चुदाई ने आग में घी का काम किया। मेरे अंग फ़ड़कने लगे। मैं आंखे फ़ाड़े उन्हें देखती रही। उनका चुदाई का कार्यक्रम समाप्त होने पर मैं भारी कदमों से अपने कमरे में लौट आई। मन में वासना की ज्वाला भड़क रही थी। रात को तो जैसे तैसे मैंने चूत में अंगुली डाल कर अपना रस निकाल लिया, पर दिल की आग अभी बुझी नहीं थी।

जमाना कितना बदल गया है, मेरे पति तो लाईट बन्द करके अंधेरे में मेरा पेटीकोट ऊपर उठा कर अपना लण्ड बाहर निकाल कर बस चोद दिया करते थे। मैंने तो अपने पति का लण्ड तक नहीं देखा था और ना ही उन्होंने मेरी चूत के कभी दर्शन किये थे। पर आज तो कमरे की लाईट जला कर, एक दूसरे के कामुक अंगो को जी भर कर देखते हैं। मजेदार बात यह कि मर्द का लण्ड लड़की हाथों में लेकर दबा लेती है, यही नहीं … उसे मुख में लेकर जोर जोर से चूसती भी है।

लड़के तो बिल्कुल बेशर्म हो कर लड़कियो की चूत में अपना मुख चिपका कर योनि को खूब स्वाद ले-ले कर चूसते हैं, प्यार करते हैं। यह सब देख कर मेरा दिल वासना के मारे मचल उठता था। यह सब मेरे नसीब में कभी नहीं था। मेरा दिल भी करता था कि मैं भी बेशर्मी से नंगी हो कर चुदवाऊँ, दोनों टांगें चीर कर, पूरी खोल कर उछल-उछल कर लण्ड चूत में घुसा लूँ। पर हाय ! यह सब मेरे लिये बीती बात थी।

तभी मुझे विचार आया कि कहीं अंजलि को बच्चा ठहर गया तो ?

मैं विचलित हो उठी।

एक दिन मैं मन कड़ा करके तैयार होकर मयंक के पापा से मिलने उनके शहर चली गई। उनका नाम सुरेश था, मेरी ही उमर के थे। उनकी आँखों में एक नशा सा था। उनका शरीर कसा हुआ था, एक मधुर मुस्कान थी उनके चेहरे पर। एक नजर में ही वो भा गये थे। उनकी पत्नी नहीं रही थी। पर वे हंसमुख स्वभाव के थे। दोनों परिवार एक ही जाति के थे। मयंक के पिता बहुत ही मृदु स्वभाव के थे। उनको समझाने पर उन्होंने बात की गम्भीरता को समझा। वे दोनों की शादी के लिये राजी हो गये। शायद उसके पीछे उनका मेरे लिये झुकाव भी था। मैं तब भी सुन्दर नजर जो आती थी, मेरे स्तन और नितम्ब बहुत आकर्षक थे। मेरी आँखें तब भी कंटीली थी। यही सब गुण मेरी पुत्री में भी थे।

कुछ ही दिनों में अंजलि की शादी हो गई। वो मयंक के घर चली गई। मैं नितांत अकेली रह गई। मेरा मन बहलाने के लिये बस मात्र कम्प्यूटर रह गया था और साथ था टेलीविजन का। पति के जमाने की कुछ ब्ल्यू फ़िल्में मेरे पास थी, बस उन्हें देख देख कर दिन काटती थी। मुझे ब्ल्यू फ़िल्म का बहुत सहारा था… उसे देख कर और रस निकाल कर मैं सो जाती थी। रोज का कार्यक्रम बन सा गया था। ब्ल्यू फ़िल्म देखना और फिर तड़पते हुये अंगुली या मोमबती का सहारा ले कर अपनी चूत की भूख को शान्त करती थी। गाण्ड में तेल लगा कर ठीक से मोमबती से गाण्ड को चोद लेती थी।

एक दिन मेरे समधी सुरेश का फोन आया कि वे किसी काम से आ रहे हैं। मैंने उनके लिये अपने घर में एक कमरा ठीक कर दिया था। वो शाम तक घर आ गये थे। उनके आने पर मुझे बहुत अच्छा लगा। सच पूछो तो अनजाने में मेरे दिल में खुशी की फ़ुलझड़ियाँ छूटने लगी थी। उनके खुशनुमा मिजाज के कारण समय अच्छा निकलने लगा।

उन्हें आये हुये दो दिन हो चुके थे और मुझसे वो बहुत घुलमिल गये थे। उन्हें देख कर मेरी सोई हुई वासना जागने लगी थी। मुझे तो लगा था कि जैसे वो अब कहीं नहीं जायेंगे। एक बार रात को तो मैंने सपने में भी उनके साथ अपनी छातियां दबवा ली थी और यह सपना जल्दी ही वास्तविकता में बदल गया।

तीसरी रात को मैं वासना से भरे ख्यालात में डूबी हुई थी। बाहर बरसात हो रही थी, मैं कमरे से बाहर गेलरी में आ गई। तभी बिजली गुल हो गई। बरसात के दिनो में लाईट जाना यहाँ आम बात है। मैं सम्भल कर चलने लगी। तभी मेरे कंधों पर दो हाथ आकर जम गये। मैं ठिठक कर मूर्तिवत खड़ी रह गई। उसके हाथ नीचे आये औरबगल में आकर मेरी चूचियों की ओर बढ़ गये। मेरे जिस्म में जैसे बिजलियाँ कौंध गई। उसके हाथ मेरे स्तन पर आ गये।

"क्…क्…कौन ?"

"श्…श्… चुप …।"

उसके हाथ मेरे स्तनों को एक साथ सहलाने लगे। मेरे शरीर में तरंगें छूटने लगी। मेरे भारी स्तन के उभारों को वो कभी दबाता, कभी सहलाता तो कभी चुचूक मसल देता। मैं बिना हिले डुले जाने क्यूँ आनन्द में खोने लगी। तभी उसके हाथ मेरी पीठ पर से होते हुये मेरे चूतड़ों के दोनों गोलों पर आ गये। दोनो ही नरम से चूतड़ एक साथ दब गये। मेरे मुख से आह निकल पड़ी। उसकी अंगुलियाँ उन्हें कोमलता से दबा रही थी और कभी कभी चूतड़ों को ऊपर नीचे हिला कर दबा देती थी। मन की तरंगें मचल उठी थी। मैंने धीरे से अपनी टांगें चौड़ी कर दी। उसके हाथ दरार के बीच में पेटीकोट के ऊपर से ही अन्दर की ओर सहलाने लगे। धीरे धीरे वो मेरी चूत तक पहुँच गये। मेरी चूत की दरार में उसकी अंगुलियाँ चलने लगी। मेरे अंगों में मीठी सी कसक भर गई। मेरी चूत में जोर से गुदगु्दी उठ गई।

तभी उसने अपना हाथ वापस खींच लिया।

मैं उसकी किसी और हरकत का इन्तज़ार करने लगी। पर जब कुछ नहीं हुआ तो मैंने पीछे पलट कर देखा। वहां कोई भी नहीं था।

अरे … वो कौन था ? कहां गया ? कोई था भी या नहीं !!!

कहीं मेरा भ्रम तो नहीं था। नहीं नहीं भ्रम नहीं था।

मेरे पेटीकोट में चूत के मसले जाने पर मेरे काम रस से गीलापन था। मैं तुरन्त समधी के कक्ष की ओर बढ़ी। तभी बिजली आ गई। मैंने कमरे में झांक कर देखा। सुरेश जी तो चड्डी पहने उल्टे होकर शायद सो रहे थे।

दूसरे भाग में समाप्त !

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